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एकांत जीवन जीने वाले विरक्त सन्यासियों की जमात का पता तो अरब में भी चलता है परंतु, आध्यात्मिकता, प्रेमोन्माद और भावाविष्टा दशा को प्राप्त होने वाले सन्यासियों की जानकारी ईरान से ही प्राप्त होती है। ईरान को सूफीमत की वास्तविक जन्मस्थली कहा जाता है। सूफीमत का विकास 7वीं सदी से माना जाता है। मोहम्मद साहब के नेतृत्व में अरब धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक रूप में संगठित हुआ। मोहम्मद साहब के बाद ईरान पर अरबों का आधिपत्य हो गया। अरब शासकों ने ईरान की कला, संस्कृति, विरासत और इतिहास का क्रूर विध्वंस किया। अरबों के अत्याचार के विरुद्ध सूफी ईरानी जनता की सांस्कृतिक प्रतिरोध की आवाज बनकर उभरे। सूफी इस्लाम को स्वीकार करने के बावजूद कुरान नई व्याख्या प्रस्तुत की।उन्होंने इस्लाम को ज्यों का त्यों नहीं स्वीकार किया। और यह बात कट्टर इस्लाम समर्थकों को खटकती रहती थी। इस्लामी एकेश्वरवाद (तौहीद) को अद्वैतवादी एकात्मवाद तक पहुँचाया। और यह सब कोई एक दिन में नहीं हुआ। राबिया के माध्यम से सूफीमत में प्रेम को प्रवेश मिला और अद्वैत अपना लक्षण स्पष्ट करने लगा। वायजीद बिस्तामी के योगदान से सूफीमत के अंतर्गत फना के सिद्धांत और अद्वैतवाद का प्रतिपादन हुआ। मंसूर हल्लाज ने अनलहक (अहं ब्रह्मांस्मि) का उदघोष किया। इस्लामिक कट्टरपंथियों ने उनकी निर्मम हत्या कर दिया। उभरते हुए सूफीमत को जबर्दस्त धक्का लगा। आगे इस्लाम और सूफीमत के बीच समझौता या समन्वय का प्रयास शुरू हुआ। अलगज्जाली (मृ.1168 ई.) के प्रयास से सूफीमत और इस्लाम का समन्वय हो गया। इस्लाम और सूफीमत का झगड़ा लगभग समाप्त हो गया। अलगज्जाली के बाद सूफीमत में दो स्पष्ट विभाजन दिखता है। सूफियों का एक धड़ा कट्टरपंथी इस्लामिक मान्यताओं का समर्थक बना और दूसरा उदार और समन्वयवादी जो इस्लाम की जड़ मान्यताओं से चिपके हुए नहीं थे। आगे चलकर सूफियों के कई सम्प्रदाय बने और सूफीमत पतन की ओर अग्रसर हुआ।