प्रगतिवादी चेतना संपन्न उपन्यासकार श्री जगदीश चन्द्र जी स्वातंत्र्योत्तर काल के हिन्दी उपन्यास लेखकों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। ‘धरति धन न अपना’ उनका पहला उपन्यास (सन् 1972) है।प्रस्तुत उपन्यास में मुख्य रूप से, ग्रामीण अंचल में सदियों से जुल्म की चक्की में पिस रहे ग्रामीण हरिजनों और भूमिहीन मज़दूरों की समस्याओं को केन्द्र में रखा गया है। साथ में उपन्यासकार ने समाज के मुख्य प्रवाह में दलितों को मिलाने का महान उद्देश्य भी रखा है। वास्तव में सामन्ती उत्पीडन और शोषण के खिलाफ हरिजन शोषितों का यह संघर्ष समाज को नई दिशा देनेवाला है। चाहे सफलता न मिली हो परन्तु यह संघर्ष सामन्ती मूल्यों को खतमं करने की चुनौती ही है। ज़मीनदारों पर दबाव डालने केलिए दलितों का जागरण और नेतृत्व अत्यन्त ज़रूरी है। मनुष्य को मनुष्य न रहने देनेवाले, मनुष्य को मृग मानकर व्यवहार करनेवाले सामन्ती संस्कारों का अन्त जब तक नहीं होगा तब तक मानव और मानवता की हत्या होती ही रहेगी।