शैक्षिक और सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि और मध्यकालीन समाजव्यवस्था
डॉ. सतीश कुमार पांडेय
प्राचीनकालीन शिक्षा व्यवस्था मध्यकाल में आते आते अत्यंत परिवर्तित हो गई थी, क्योंकि राज्य की अव्यवस्थित राजनैतिक स्थिति का प्रभाव शिक्षा व्यवस्था पर भी पड़ा। भारत के इतिहास में मध्यकाल राजनैतिक उथल पुथल का काल रहा। एक के बाद एक क्रमशरू गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैय्यद, लोदी तथा मुगल वंशों का उदय और अंत हुआ। मुगल शासक पूर्ण सत्ता संपन्न था। सम्राट का विरोध करने का साहस किसी में भी ना था। शासक साम्राज्य का प्रधान होता था और सम्राट की आज्ञा प्रमुख होती थी। सम्राट किसी के भी परामर्श को मानने के लिए बाध्य नही था। वह सभी निर्णय स्वयं ही लेता था। मध्यकालीन शासकों ने अपनी नीतियों का अनुसरण करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार किया। मध्यकालीन राजनीतिक स्थिति संघर्षों से आक्रांत तथा अव्यवस्थित थी। राजनीतिक परिवेश अत्यधिक संघर्ष पूर्ण, अव्यवस्थित, अशांत, नैतिक पतन, व्यक्तित्वविहीनता, अहंवादी नीति, विलासिता व असहिष्णुता का युग रहा है। मध्यकालीन सभी शासक एकतंत्रीय और स्वेछाचारी थे। इस स्वेछाचारिता का प्रभाव शिक्षा नीति पर भी पडा। शिक्षा के प्रति सभी शासकों की रीति नीति अलग रही जो उनकी मृत्यु के बाद समाप्त हो जाती थी। यदि किसी शासक की शिक्षा के प्रति अधिक रुचि रही तो उनके शासन काल में शिक्षा की पर्याप्त प्रगति होती थी, किन्तु यदि शासक की रुचि शिक्षा के प्रसार में नही होती थी, तो शिक्षा की दशा दयनीय होती जाती थी। इसप्रकार मध्यकालीन शिक्षा पूरी तरह शासक वर्ग की रुचि पर आधारित थी। शिक्षा का महत्व, नैतिक शिक्षा का प्रसार, शिक्षा की प्रगतिशील दिशा का अपना कोई स्वातंत्र्य अस्तित्व नही था। अतरू संक्षेप में कह सकते हैं कि मध्यकालीन शिक्षा का संख्यात्मक और गुणात्मक विकास अवरुद्ध रहा। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि उसने भारतीय जनसाधारण को सैकड़ों वर्षों तक शिक्षित करने का कार्य किया।
डॉ. सतीश कुमार पांडेय. शैक्षिक और सांस्कृतिक समन्वय की दृष्टि और मध्यकालीन समाजव्यवस्था. Sanskritik aur Samajik Anusandhan, Volume 2, Issue 2, 2021, Pages 08-13