नारी जाति की एक विशेष शक्ति, एक विशेष गुण की ओर लक्ष्य करते हुए महादेवी लिखती हैं कि ‘‘नारी में परिस्थितियों के अनुसार अपने बाह्य जीवन को ढाल लेने की जितनी सहज प्रवृत्ति है, अपने स्वभावगत गुण न छोड़ने की आंतरिक प्रेरणा उससे कम नहीं- इसी से भारतीय नारी भारतीय पुरुष से अधिक सर्तकता के साथ अपनी विषेशताओं की रक्षा कर सकी है, पुरुश के समान अपनीे व्यथा भूलने के लिए वह कादम्बिनी नहीं माँगती, उल्लास के स्पंदन के लिए लालसा का ताण्डव नहीं चाहती क्योंकि दुःख को वह जीवन की शक्ति-परीक्षा के रूप में ग्रहण कर सकती है और सुख को कर्तव्य में प्राप्त कर लेने की क्षमता रखती है। ऐसी कोई साधना नहीं जिसे वह अपने साध्य तक पहुँचने के लिए सहज भाव से स्वीकार नहीं करती रही। हमारी राष्ट्रीय जागृति इस प्रमाणित कर चुकी है कि अवसर मिलने पर गृह के कोने की दुर्बल बन्दिनी स्वच्छ वातावरण में बल प्राप्त कर पुरुषो से शक्ति में कम नहीं।