नैतिकता एक ऐसी अवधारणा है जिसने स्त्री को स्वच्छन्द रूप से रहने और सोचने ही नहीं दिया। ज्ञात इतिहास इसका उदाहरण है। इतिहास इस बात का भी गवाह है कि स्त्री यदि अधोगति के लिए विवश थी तो उनके पीछे पुरुष मानसिकता की वह सीमा रेखा कार्यरत थी जिसको स्त्री चाहकर भी नहीं लाँघ सकती थी। यदि वह सीमाओं को लांघती तो उसे अनेक लांछनों को सहना पड़ता, हालांकि उसने अनेक लांछन सहे भी हैं और कमोबेश आज भी सह रही है। स्त्री खुद अपनी अधोगति को अपनी नियति मानकर चुपचाप समय के साथ समझौता करती रही है। नैतिकता का सारा जाल स्त्री के इर्दगिर्द जो बुना गया, उसका उद्देश्य स्त्री पर शासन करना था, उसे अपने इशारों पर चलाने के लिये था। स्त्री देह पर नियंत्रण इसकी बड़ी उपलब्धि रही क्योंकि देह पर नियन्त्रण से स्त्री पूर्णतः पुरुष के अख्तियार में आ गयी। स्त्री के मानस में देह की शुचिता को बड़े गहरे तक पितृसत्ता ने काबिज़ कर दिया जिससे स्त्री देह से बाहर निकल ही नहीं पाई। ऐसे में स्त्री पर शासन करना पितृसत्ता के लिए आसान हो गया। धर्म, समाज, परम्परागत रीति रिवाज आदि से सम्बंधित नैतिकताएँ स्त्री के खाते में बड़ी चालाकी से डाल दी गईं। स्त्री ने भी इसे अपने जीवन का हिस्सा मान लिया और नैतिकता के जाल में ऐसी उलझती गई कि फिर इनसे निजात मिलना उसके लिए मुश्किल हो गया। ऐसा नहीं है कि नैतिकता कोई बुरी चीज है या नैतिकता से कोई नुकसान है, लेकिन समस्या और प्रश्न यह पैदा होता है कि नैतिकता की सारी ठेकेदारी स्त्री के हिस्से ही क्यों डाल दी गई? देह शुचिता की अवधारणा को इसके उदाहरण के रूप में देखी जा सकती है। देह शुचिता का सवाल स्त्री और पुरुष दोनों के लिए होना चाहिए क्योंकि देह तो पुरुष की भी होती है, लेकिन पुरुष शुचिता के इस दायरे से बाहर रहता है लेकिन स्त्री नहीं। धर्म, सामाजिक जिम्मेदारी अथवा परम्पराएँ सभी को स्त्रियां ही निभाती रही हैं और आज भी निभा रही हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि प्राचीन काल से लेकर आज तक स्त्रियाँ नैतिकता के दायरों में बंधी चली आ रही है।