जब कोई कृतिकार अपने अंतर्मन में संचित किए गए विभिन्न, देखे व समझे गए अनुभवों तथा यथार्थ को दूसरों से साझा व उससे रूबरू करवाना चाहता है तब वह अपनी लेखनी का प्रयोग कर साहित्य के क्षेत्र में अपनी रचनात्मक कृति के द्वारा भागीदारी देता है। कृतिकार की कृति प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्रभावित करती है और वह पथप्रदर्शक की भाँति आगे खड़ा हो समाज के नवनिर्माण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कृति में अतीत के रहस्यों, वर्तमान के लिए दिशा निर्देश तथा भविष्य के लिए मार्गदर्शन का संभार भी होता है। सही अर्थों में समाज और साहित्य का मजबूत संबंध रहा करता है। और इस संबंध को बनाये रखने की कड़ी के रूप में एक सुसंपन्न रचनाकार रहता है जो इसे बनाए रखता है। गोसाईं तुलसीदास को सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है तथा उनकी कृति एक आदर्श ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है। इसके बावजूद भी कुछ विद्वानों द्वारा उन पर यह आक्षेप लगाए जाते रहे हैं कि उन्होंने देश के ऐहिक उत्थान में योग नहीं दिया है। इन आक्षेपों का बड़े ही तर्क सम्मत निष्कर्षों के आधार पर आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा निषेध किया गया है। आचार्य मिश्र के अध्ययन का प्रधान क्षेत्र मध्यकाल रहा है। वे तुलसी साहित्य के मर्मज्ञ समीक्षक रहे हैं। उनके द्वारा तुलसीदास के ऐहिक विषयक विशिष्ट विशेषताओं को साहित्य के जिज्ञासुओं के समक्ष रखते हुए तुलसीदास को एक नए सिरे से देखने व समझने का दृष्टिकोण तथा अवसर प्रदान किया गया है।